पीपीपी मॉडल से ही हो सकेगा देश टीबी मुक्त

पीपीपी मॉडल से ही हो सकेगा देश टीबी मुक्त

नरजिस हुसैन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत से टीबी के खात्मे की समय सीमा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा तय की गई समय सीमा 2030 से भी पांच साल पहले यानी 2025 का लक्ष्य रखा है। बात काबिलेतारीफ है लेकिन, इस मकसद को दरअसल पाना काफी चुनौतीपूर्ण है। आज दुनिया भर में टीबी के मरीजों की सबसे अधिक संख्या भारत में ही है। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि 2016 में तकरीबन 17 लाख लोगों की मौत टीबी की बीमारी से हुई। 

हालांकि, देश में टीबी के मरीजों की तादाद में बीते कुछ सालों में कमी दर्ज की गई है। 2016 में जहां ये मरीज 27.9 लाख थे वहीं 2017 में घटकर 27.4 लाख हो गए। ये कमी विश्व स्तर पर कुछ कम जरूर रही लेकिन, इस बीमारी से मरने वालों की संख्या कुछ कम हुई। दरअसल, भारत में टीबी के मरीजों की दवा प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती जा रही है जिससे सही वक्त पर इसके मरीजों का इलाज शुरू करने में देरी हो जाती है। दवा प्रतिरोधक क्षमता यानी अत्यधिक दवाइयां लेने से एक समय के बाद शरीर में इनका असर कम या खत्म हो जाता है। दरअसल टीबी के मरीज सरकारी और गैर-सरकारी दोनों ही तरह के अस्पतालों में पहुंचते हैं। अब प्राइवेट अस्पताल महंगे होने के साथ-साथ लंबे समय में बीमारी का पता लगा पाते हैं तो वहां इलाज भी देर से शुरू होता है। वहां टीबी के मरीजों की सही संख्या का खुलासा भी देरी से होता है या नहीं हो पाता। ये तथ्य इस साल जनवरी में पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ सांइस (पीएलओएस) नाम की एक साइंटिफिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ।

देश इस वक्त टीबी को जड़ से खत्म करने की दोहरी लड़ाई लड़ रहा है। पहली, मरीजों में लगातार बढ़ती जा रही ड्रग रेसिस्‍टेंट क्षमता और दूसरी प्राइवेट अस्पतालों को विनियमित करने की। मरीज ड्रग रेसिस्‍टेंट क्षमता तक कैसे पहुंचता है, पहले ये जान लें। सबसे पहले तो रोगी को यह पता ही नहीं चल पाता कि वह टीबी जैसी किसी जानलेवा बीमारी का शिकार हुआ है। मामूली सर्दी खांसी में छोटे और प्राइवेट डाक्टर जो दवाइयां देते हैं वे खाकर अकसर खांसी कुछ समय के लिए चली जाती और फिर वापस आ जाती है। फिर मरीज दवाइयां बदलते हैं और स्ट्रांग डोज लेते हैं या फिर फीस के चलते डॉक्टर बदलते हैं। बहुत बार अलग--अलग जगह एक ही टेस्ट में मरीज उलझ जाता है। दूसरा, देखने में आया है कि ज्यादातर मरीज अपनी सहूलियत से डॉक्टर के पास जाते हैं मसलन आयुर्वेदिक, युनानी, होम्योपैथी, योगा वगैरह। वजह समय और पैसा दोनों ही है। लेकिन, इस सहूलियत में और हाई डोज में मरीज का रोग धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और हल्की दवाइयां शरीर में असर करना कम कर देती हैं और धीरे-धीरे मरीज ड्रग रेसि‍स्‍टेंट हो जाता है। 

आज भी गांव देहातों में सार्वजनिक स्वास्थ्य का जो आधारभूत ढांचा है वह बहुत पुख्ता नहीं है। शहरों में तो टीबी की जांच से लेकर इलाज जल्दी शुरू हो जाता है लेकिन, आधी आबादी जो गांवों में रहती है वहां इसका इलाज जल्दी मिलना मुश्किल है। गांवों या दूर-दराज के इलाकों में अब भी लोगों को कई-कई मील जाकर इलाज कराना पड़ता है। इसमें ताकत और समय दोनों ही लगता है। और हर बार मरीज इतनी दूर जाकर दवाएं लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता और अक्सर लंबा चलने वाला इलाज बीच में ही छोड़ देता है। 

विशेषज्ञों का मानना है कि छोटे या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में ड्रग रेसिस्‍टेंट मरीजों को भेजने की सुविधा होनी ही चाहिए जिससे मरीजों का समय भी बचे और लंबा इलाज भी जारी रहे। मौजूदा सरकार में जहां हर तरफ पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी की बात हो रही है वहीं स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में भी यह पहल अच्छे नतीजे दे सकती है। यही नहीं बल्कि सरकार अगर चाहे तो ऐप के जरिए भी मरीज को सुविधा दे सकती है क्योंकि गांव-गांव आज अस्पताल भले ही न हो लेकिन स्मार्ट फोन और इंटरनेट सब जगह हैं। दूसरा, सरकार को चाहिए कि प्राइवेट स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ मिलकर इस बीमारी के सभी टेस्ट और दवाएं आम आदमी के इतने पहुंच में ले आए कि मरीज किसी भी अस्पताल में इसका इलाज कम पैसे या मुफ्त में करा सके।

पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ साइंस (पीएलओएस) के प्रकाशित लेख के अनुसार ज्यादातर विशेषज्ञों की राय है कि भारत से टीबी को जड़ से तब तक खत्म नहीं किया जा सकता जब तक प्राइवेट स्वास्थ्य सुविधाओं को विनियमित न किया जाए और उनके साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की भागीदारी तय न की जाए। देश की करीब 80 प्रतिशत जनता इन्हीं प्राइवेट अस्पतालों में जाती है इसलिए यह व्यवस्था न सिर्फ ड्रग रेस्सिटेंट मरीजों बल्कि टीबी के नए मामलों को भी वक्त रहते पहचानने में बड़ी मददगार साबित होगी।

(लेखिका sehatraag.com की कंसल्‍टेंट हैं और सामुदायिक एवं जन स्‍वास्‍थ्‍य पर पिछले दो दशकों से लेखन कर रही हैं।)

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